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संवेदनहीन और पत्थर दिल तब थी, जब उनके ताने और ज्यादतियां सहन कर रही थी

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एक हफ्ते से घर में मातम का माहौल है। आज से ठीक सात दिन पहले अजय की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। हमारी शादी को अभी दो साल भी नहीं हुए हैं। तीस साल की कोई उम्र नहीं होती मृत्यु लोक में जाने की, लेकिन विधि के विधान के आगे किसी की क्या बिसात।


बूढ़े मां-बाप का रो-रोकर बुरा हाल है। रिश्तेदार, दोस्त, पास-पड़ोस, सब अफसोस प्रकट करने आ रहे हैं। हर किसी की जुबान पर यही बात है कि बेचारे ने देखा ही क्या था ज़िन्दगी में, इतनी जल्दी चला गया। बुढ़ापे में मां-बाप का सहारा ही छिन गया, इकलौता पुत्र जो था। दो पुत्रियां हैं पर पुत्र का स्थान कोई नहीं ले सकता। फिर सब को मेरा ध्यान आया, जवानी की दहलीज पर खड़ी है पहाड़ सी जिंदगी, बिना सहारे के कैसे काटेगी।


मुझे अजय के जाने का बहुत दुख है, इतनी मुश्किल से मनुष्य योनि मिलती है लेकिन उम्र नहीं लेकर आया था। मुझे अपने माता-पिता की हालत देखकर और भी अधिक दुख हो रहा है। एक ही शहर में रहते हैं, इसलिए एक हफ्ते से रोज़ ही आ जाते हैं। कभी उनके साथ मौसी या चाची या और कोई रिश्तेदार आ जाता है। दोनों को मेरे भविष्य को लेकर निश्चित तौर पर बहुत चिन्ता है, इसलिए घुले जा रहे हैं।


अब लोगों का आना-जाना कुछ कम हो गया है। मैं, मां-पिताजी और बड़ी मौसी के साथ अपने कमरे में बैठी हूं। पिताजी लगातार वही बात बोले जा रहें है, “तेरा क्या होगा निम्मो, सारी जिंदगी पड़ी है तेरे सामने। तू तो बस सास-ससुर की सेवा करती रहना। इस घर में पड़ी रहना, तेरा जीवन कट जाएगा। आखिर अजय की पत्नी है, इस मकान में तेरा भी हिस्सा है, भले ही तेरे पास कोई बच्चा नहीं हो।”


मां-पिताजी अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे सास-ससुर मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करते हैं। वे क्या मेरे पति को भी मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। शादी की पहली रात ही यह खुलासा करके उन्होंने मुझे एक यादगार तोहफा दे दिया था।


कमरे में आते ही वे बोले, “देखो निर्मला तुमसे शादी मैंने अपने मां-पिताजी के कहने पर की है। तुम देख ही सकती हो हम दोनों की पर्सनैलिटी में कितना फर्क है। मेरे लिए बहुत रिश्ते आ रहे थे, एक से बढ़कर एक अच्छे पैसों वाले घरों की सुन्दर पढ़ी-लिखी लड़कियां मुझसे शादी करना चाहती थी। लेकिन मेरे पिता जी इतनी बारीकी से जांच पड़ताल करते कि अधिकतर रिश्ते निकल गये। एक लड़की मुझे बहुत अच्छी लगी तो वे इन्तजार करते रहे कि लड़की वाले स्वयं आकर बात करें। मेरे बहुत जोर देने पर जब वे बात करने गए तो उस लड़की का रिश्ता कहीं और हो गया था। मेरा मन शादी से हट गया था। ऐसे में उन्होंने घबराकर जो रिश्ता उसके बाद सबसे पहले आया, पक्का कर दिया।


रिश्ता जोड़ने का यह क्या आधार हुआ, लेकिन मेरे पिताजी ने भी ऐसा ही कुछ किया था। तीन चार साल से मेरी शादी करवाने की कोशिश कर रहे थे, साधारण रूप रंग की लड़की को निपटाना कोई आसान काम नहीं है। जैसे ही अजय के घर वालों ने हां कर दी, उन्होंने चट मंगनी, पट ब्याह कर दिया। मैंने विरोध किया, कहा कि मुझे विवाह नहीं करना है, मैं नौकरी करना चाहती हूं, लेकिन अपनी मजबूरी और समाज का डर दिखाकर मेरा मुंह बंद करा दिया।


अजय को मेरे चेहरे से तो परेशानी थी ही, उसे मेरा पहनावा, बोलने, काम करने का तरीका, कुछ भी नहीं सुहाता था। बाहर वालों के सामने मेरा अपमान करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। सास-ससुर ने देखा जब बेटा-बहू की इज्जत नहीं करता तो वे क्यों पीछे रहें और जब दोनों बहनें मायके आतीं, तो रही सही कसर वे पूरी कर देतीं।


शादी के कुछ दिनों बाद ही मैंने उनके बर्ताव पर विरोध प्रकट किया। घर में जैसे भूचाल आ गया हो, तीनों मेरे ऊपर हुक्का पानी लेकर चढ़ गए। सुना-सुनाकर मेरे कानों के पर्दे छलनी कर दिये। मुझे समझा दिया गया कि उन्होंने मुझ पर कितना एहसान किया है इस घर में लाकर।


वैसे मैं इतनी गई गुजरी थी, लेकिन अजय का जब मन करता रात को भूख मिटाने आ जाता। एक दिन मैंने गुस्से से पूछा, “मेरे साथ ये सब करते हुए घिन नहीं आती, जब मैं इतनी बुरी लगती हूं।” वह कपड़े पहनते हुए लापरवाही से बोला, “इसको करने के लिए थोबड़ा देखने की क्या जरूरत है।”


इससे अधिक अपमानित मैंने अपने आपको जीवन में कभी महसूस नहीं किया था। मैं जानती हूं कभी किसी लड़के ने पलटकर दाेबारा मेरी तरफ नहीं देखा, लेकिन पढ़ाई और व्यवहार में मैं इतनी अच्छी थी कि लड़के हों या लड़कियां, मुझसे दोस्ती करना चाहते थे। शारीरिक बनावट की नींव पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की मेरी कभी मंशा नहीं रही थी।


मैंने अपने मां-पिताजी को अपनी स्थिति से अवगत कराया। उन्होंने मेरी सहायता करने में असमर्थता प्रकट की और इसे अपना भाग्य समझकर समझौता करने की सलाह दी। गली के कुत्ते, (मैं अपनी तुलना कुत्ते से क्यों करूं) बिल्ली के बच्चे को भी घर में लेकर आओ तो प्यार हो जाता है, लेकिन मेरी एेसी किस्मत कहां। मैं जितना चुप रहती उनके हौसले उतने बुलन्द हो रहे थे। मैंने निर्णय ले लिया था अब और नहीं सहन करूंगी। मैंने छुप-छुपकर अपनी काॅलेज की सहेलियों से सम्पर्क करना शुरू किया। उन्हें अपनी स्थिति बताकर सहायता मांगी।


पिताजी अभी भी बड़ी मासी से मेरे अन्धकारमय भविष्य के बारे में बात कर रहे थे। उनका दयनीय स्वर सुनकर मुझे उनके लिए बहुत दुःख हो रहा था। मैंने धीरे से कहा, “आप इतना क्यों परेशान हो रहे हो? अगर अजय के साथ यह हादसा नहीं हुआ होता, तो मैं उन्हें छोड़कर जाने वाली थी।” मां को जैसे करंट लगा हो, वह उछलकर कुर्सी से मेरे पास पलंग पर आकर बैठ गई। उनका मुंह मेरे कान के निकट था और नज़रों से चारों ओर देखती हुई पूरी ताकत से फुसफुसाते हुए बोली, “पागल हो गई है, क्या अनाप-शनाप बक रही। छोड़ने वाली थी, कहां जाती यह घर छोड़कर?”


बड़ी मासी बोली, “कमला, मैं तो शुरू से कहती थी तेरी लड़की के लक्षण ठीक नहीं हैं, घुन्नी है बिल्कुल। बोलती कुछ नहीं है, लेकिन इसके दिमाग में क्या चल रहा है कोई नहीं जानता।” मौसी से निपटने का समय अभी मां के पास नहीं था। वे मुझसे कह रही थीं “अजय की चिता की अग्नि शान्त भी नहीं हुई है और तुम ऐसी बकवास कर रही हो। तुम कितनी संवेदनहीन और पत्थर दिल हो गई हो।”


बिना संयम खोए मैंने कहा, “मेरी सहेली पूजा की सहायता से मैंने उसके शहर में अपने लिए एक नौकरी ढूंढ ली है। पीजी में रहने का इंतजाम भी हो गया है। संवेदनहीन और पत्थर दिल मैं तब थी जब उनके ताने और ज्यादतियां सहन कर रही थी, अपनी किस्मत समझकर।”

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